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Mumbai, Maharastra, India
I have lost myself so until I find him within me there is nothing about me that can be written.

Monday, March 29

तलब लगी है


तलब लगी है, सांस लेनी है ढूँढ रहा हु |
भागा नहीं, हाफ्फ़ रहा हु |
पसीना भी आने लगा है अब,
कोई तिंका ही सही सहारा ढूँढ रहा हु |
कहा तक भागू,
कोई तो मिले जिसे पकड़ कर रुक सकू, शायद रो सकू |

अँधेरा,
मेरी सांसे हफ्ते हुए,
धड़कने बढ़ते हुए,
ये क्या हुआ, तलब बढ़ रही है अब |

मैंने कैसे ऐसा होने दिया,
खुद के लिए एक निकृष्ट नपुंसक सी भावना आ रही है |
अपने आँखों के सामने मैंने उसे कैसे जाने दिया,
अब वह कभी नहीं मिलेगी,
बस यही तक था सब, यह मैंने क्या किया |

 बस हफ्ते भर पहले उसके जन्मदिवस पर फूल भेट किये थे,
वोह फूल सूखे ना होंगे अब तक |
अब तो कहाँ तक दौड़ा, मालूम नही,
हाफ़ और ज्यादा रहा हु,
बस किसी चीज़ की तलब लगी है |
वह मिल जाये,
मै ठीक हो जाऊ|

अब तो ढूँढने पे भी साँसे नहीं मिल रही है,
भागते-भागते मै अँधेरे में जैसे रुक सा गया |.
हाफ़ अब भी रहा हु,
तलब तो चरम सीमा पर है अब| .

थोड़ी सी रौशनी,
सामने से कुछ आता हुआ |
नजदीक आता गया,
मै खड़ा हु, कोई तो दिखा,
शायद इससे पकड़ कर रो लू |
दो आंसू बहे  तो  मन हल्का हो जाये,
शायद तलब कम हो जाये |

वह अब बोहत करीब आ गया है |
मुझे  बस रौशनी दिखाई दे रही है |
मेरी नींद खुल गयी, और मै शायद कल बत्ती जलते हुए छोड़ के ही सो गया | .

प़र तलब अब भी है,
सांसे अब भी तेज़ है,
मतलब मै सच में हाफ रहा हु |
क्या करू किमकर्तव्यविमूढ़ सा हो गया हु |
आस पास देखा, कल लैपटॉप चालू छोडके ही सो गया था |
झट-पट उठके लिखने लगा |

मैंने एक सपना देखा, मेरी २ साल की ………………. छोड़िए बस एक सपना देखा, पर तलब अब भी है |
 



किमकर्तव्यविमूढ़   : क्या करू क्या ना करू की परिस्थिति|


Friday, March 26

अंत


दो लोग, कब तक साथ रह सकते है,
कयामत;
कयामत तो अब नज़दीक होते हुए भी दूर लग रही है |
ज़िन्दगी छोटी और इंसानियत मजबूर लग रही है |

 मगर आज, अंत, दिखा है मुझे 
क़यामत नहीं, एक किस्से का अंत, 
किस्सा कहें  या ज़िन्दगी के एक हिस्से का अंत,
बस आज अंत दिखा है मुझे|

  
हर उस सुबह की शाम का अंत,
हर उस आगाज़ के अंजाम का अंत,
हर उस मीरा के श्याम का अंत
बस आज अंत दिखा है मुझे|


Waiting for the Ray.....

सूरज के उस पहली किरण के इंतज़ार मे, मैंने ये रात गुजारी है,
यहाँ खुशिया ना है,
बस ग़म ही ग़म है,
दुखे ही सारी है,
सूरज के उस पहली किरण के इंतज़ार में,
मैंने ये रात गुजारी है|

ये अँधेरा भी क्या चीज़ है,
दीखता कुछ ना यहाँ,
पर दिखती हर देहलीज़ है|
किसी का ना चेहरा दीखता,
पर दिखती सब के मन की खींच है |
सूरज के उस पहली किरण के इंतज़ार में,
मैंने दिया अँधेरे को सींच है|

इस अँधेरे में लगता कोई ना अपना है,
पर सूरज के उस पहली किरण का इंतज़ार,
वह सपना, बस वोह मेरा अपना है|
 
घोर अँधेरे में खड़ा आज मै,
पर अब येही रौशनी ढूँढता हु,
हु वही, हु वही जहाँ पहले था
पर अब येही दिल्लगी ढूँढता हु|

देखता आ रहा हु सालों से,
कभी उनकी, कभी उसकी,
पर आज मेरी बारी है|
क्योंकि सूरज के उस पहली किरण के इंतज़ार में
मैंने ये रात गुज़री है,
 
फर्क बस इतना ह,
सब गर्मी, और मै सर्दी की रात गुजार रहा हु,
सूरज के उस पहली किरण के इंतज़ार में,
मै बेदर्दी की रात गुजार रहा हु|

आस....

एक राह पर मिले, है अनेक बुलबुले,
फट जाते, लुट जाते, मिट जाते,
है फिर भी, अनेक फूल एकता में है खिले

देश ये अपना है, वतन भी तो अपना है,
देश ये अपना है, वतन भी तो अपना है,
फिर भी नेताओ को ही दोष क्यों दिए,
देश जो अपना है, दोष भी ये अपना है,
भूलना ना जो कहर हमने है किये


दिल में जो दर्द है उसे वोट बन जाने दो
वोह परदे में है छुपा 
वोह परदे में है छुपा
पर्दा फाश हो जाने दो
ये आस है मेरी इसे हकीकत बन जाने दो |