तलब लगी है, सांस लेनी है ढूँढ रहा हु |
भागा नहीं, हाफ्फ़ रहा हु |
पसीना भी आने लगा है अब,
कोई तिंका ही सही सहारा ढूँढ रहा हु |
कहा तक भागू,
कोई तो मिले जिसे पकड़ कर रुक सकू, शायद रो सकू |
अँधेरा,
मेरी सांसे हफ्ते हुए,
धड़कने बढ़ते हुए,
ये क्या हुआ, तलब बढ़ रही है अब |
खुद के लिए एक निकृष्ट नपुंसक सी भावना आ रही है |
अपने आँखों के सामने मैंने उसे कैसे जाने दिया,
अब वह कभी नहीं मिलेगी,
बस यही तक था सब, यह मैंने क्या किया |
बस हफ्ते भर पहले उसके जन्मदिवस पर फूल भेट किये थे,
वोह फूल सूखे ना होंगे अब तक |
अब तो कहाँ तक दौड़ा, मालूम नही,
हाफ़ और ज्यादा रहा हु,
बस किसी चीज़ की तलब लगी है |
वह मिल जाये,
मै ठीक हो जाऊ|
अब तो ढूँढने पे भी साँसे नहीं मिल रही है,
भागते-भागते मै अँधेरे में जैसे रुक सा गया |.
हाफ़ अब भी रहा हु,
तलब तो चरम सीमा पर है अब| .
थोड़ी सी रौशनी,
सामने से कुछ आता हुआ |
नजदीक आता गया ,
मै खड़ा हु, कोई तो दिखा,
शायद इससे पकड़ कर रो लू |
दो आंसू बहे तो मन हल्का हो जाये,
शायद तलब कम हो जाये |
वह अब बोहत करीब आ गया है |
मुझे बस रौशनी दिखाई दे रही है |
मेरी नींद खुल गयी, और मै शायद कल बत्ती जलते हुए छोड़ के ही सो गया | .
प़र तलब अब भी है,
सांसे अब भी तेज़ है,
मतलब मै सच में हाफ रहा हु |
क्या करू किमकर्तव्यविमूढ़ सा हो गया हु |
आस पास देखा, कल लैपटॉप चालू छोडके ही सो गया था |
झट-पट उठके लिखने लगा |
किमकर्तव्यविमूढ़ : क्या करू क्या ना करू की परिस्थिति|